Friday, March 11, 2011

इसी पहर .....





उठती  थी  मेरी दर्द की लहर 
हो गयी थी  जब दोपहरी का पहर,

बस देखता था अपने सपनो को 
टूटते -बिखरते हुए इधर-उधर, 
न जाने कौन सी  घडी थी वो 
जो सब कुछ खोकर में  
पाया था अपने मन में एक घर...वो भी इसी पहर  !

फिर में उठता चलता आसमा को देखता 
शुरुआत होती फिर एक नयी पहर 
न जाने ऐसा क्यों लगता था 
बीत जाएगी सारी जिन्दगी...  इसी पहर !!

फिर में सोचता क्या हो गया मुझे 
न जाने किस खवाब में जीता हूँ इस कदर 
सब कुछ वैसे का वैसा ही था 
बीत जाने के बाद ......इस पहर 

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