उठती थी मेरी दर्द की लहर
हो गयी थी जब दोपहरी का पहर,
बस देखता था अपने सपनो को
टूटते -बिखरते हुए इधर-उधर,
न जाने कौन सी घडी थी वो
जो सब कुछ खोकर में
पाया था अपने मन में एक घर...वो भी इसी पहर !
फिर में उठता चलता आसमा को देखता
शुरुआत होती फिर एक नयी पहर
न जाने ऐसा क्यों लगता था
बीत जाएगी सारी जिन्दगी... इसी पहर !!
फिर में सोचता क्या हो गया मुझे
न जाने किस खवाब में जीता हूँ इस कदर
सब कुछ वैसे का वैसा ही था
बीत जाने के बाद ......इस पहर
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