ये उठता धुँआ हैं , जो थमता नहीं चलता जाता हैं
दूर जाकर हमसे, आसमा की आगोश में छिप कर बैठ जाता हैं !
वो न जाने क्यूं छिपकर निहारता खुद में हमको ,
जब भी कोई वहां से गुजर कर आता हैं !
अब तो बस वफाये नज्र को ,ये आँखे तलाशती हैं
वो कही पे भी हो ,बस उनको सपनो में पाती हैं !
गर दूर हो भी गयी, मेरी इनायत से
तो रूह भी मेरी तुझे तलाशती हैं !!
--- बिट्टू
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